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Saturday 3 March 2012

~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ माँ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~


एक बार माँ के ऊपर निबंध लिखकर लाना था दो पन्नों पर,
स्याही तो बहुत थी मेरे पास,
पर क्या लिखती में माँ के बारी में, 
पहला सिक्षा तो माँ ने ही दिया है मुझको, 
सहनशीलता की शिक्षा और धैर्य की परिभाषा सब माँ से ही सिखा था मैने, 
माँ के द्वारा दिया गया सिक्षा के आगे कोई और सिक्षा नहीं है, 
मैने कई बार पढ़ा था कुछ पुस्तकों में की माँ बच्चे की पहली पाठशाला होती है,
सही लिखा है पुस्तकों में,
पर हकीकत के दुनिया में पहला अक्षार माँ से ही मिलता है पड़ने को, 
हर सिक्षा हर भाषा और हर शब्द से अतुलनीय होती है माँ की बोली यानी शब्द " माँ "।

~ ~ सदा बहार ~ ~ 

~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ माँ का प्यार अतुलनीय ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~


गलती करने पर,
छिप जाया करती थी माँ के आँचल में,
हर रोज देखती थी में सपनों में माँ को, 
माँ का प्यार एक ऐसा पवित्र प्यार है,
जो किसी और प्यार में पवित्रता नहीं है,
जैसे पिता,दोस्त,आदी का प्यार, 
माँ के प्यार में कोई छल कपट भी नज़र नहीं आता,  
गलती हो जाने पर भी,
माँ मुझको प्यार करते रहती थी,
सभी बच्चे माँ के दुलारे होते है, 
दुनिया में माँ का प्यार अतुलनीय है, 
माँ के प्यार के आगे भगवान् स्वयं भी झुक जाते है ।

~ ~ सदा बहार ~ ~ 

~ ~ ~ ~ ~ ~ कैसे बनाऊं में माँ की तस्वीर ~ ~ ~ ~ ~ ~


उलझती जा रही हूँ में अपने ज़िन्दगी के लकीरों में,
सपनों में आई हुई माँ की तस्वीर,
में कैसे बनाऊं ?
हर रंगों में उलझी हुई हूँ में, 
माँ के स्नेह का कोई सपना ही आ जाए,
बीते हुए सपनों को में देख आयी,
फिर भी सुलझे न रंगों की समस्या, 
जहाँ चोट लगने पर भी माँ के स्नेह का निशाँ था, 
घंटो रोई थी में सपनों में,
माँ तो आती थी बार -बार, 
माँ के चेहेरे नज़र आ रहे थे,  
फिर भी में उन लकीरों और रंगों में उलझी हुई हूँ,
हर रोज आड़ी तिरछी रेखाए बनाती रही में माँ के शब्दों के, 
पर माँ की तस्वीर को लेकर रंगों से आज तक में उलझी हुई हूँ,
कैसे बनाऊं में माँ की तस्वीर ।

~ ~ सदा बहार ~ ~ 
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